कल चंद्रयान का राकेट श्री हरिकोटा के लॉन्चपैड से जब उड़ा तो अपने पीछे भारत की इस धरती पर न जाने क्या क्या छोड़ गया। बाढ़, महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, राजनीति इत्यादि इत्यादि। चंद्रयान तो अभी चाँद के ऑर्बिट में शामिल हो जाएगा और शायद महज़ एक महीने के अंदर चाँद के सतह पर भी उतर जाएगा। महज़ 600 करोड़ की यह परियोजना ISRO के वैज्ञानिकों की अनूठी क़ाबिलियत का पताका विश्व भर में फहराती है। इसरो और स्पेस रिसर्च में हमने योजनाबद्ध तरीके से पिछले 60 वर्षों में निवेश किया है जिसका परिणाम आज हम इन विशिष्ट सफलताओं में देख रहे हैं। आज ISRO बाहर के देशों के Satellite को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित कर प्रचुर मात्रा में विदेशी मुद्रा भी कमा रहा है। हम इसरो एवं वहाँ के वैज्ञानिकों पर गर्व अनुभव करते हैं।
तो, इसरो सरीख़े संस्थानों में निवेश और मंदिर मस्जिद की भव्य इमारतों में निवेश में क्या फर्क है और इसका इंसानियत पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
मेरे देखे , विज्ञान में निवेश आस्था की बेड़ियों को तोड़ कर आपको रॉकेट की तरह उन्मुक्त बना सकता है, पारलौकिक दुनिया से आपका परिचय करा सकता है , अनदेखे को reveal कर सकता है। वहीं मंदिर मस्जिद में निवेश आपकी आस्था को और मजबूत करता है ,आपकी पहचान जो आपको दी गयी है या बताई गयी है उसका अस्थिकरण कर देता है। यह नहीं कह रहा हूँ की क्या सही है या क्या ग़लत। दोनों के अपने परिणाम हैं।
भारत का पिछला लगभग 1000 साल का इतिहास आस्था के अस्थिकरण का रहा है। आस्था मज़बूत होती गयी, और मानवीय Quest पीछे छूटता गया। परिणाम स्वरुप बाहर की शक्तियों का शासन, राजनैतिक एवं सामाजिक पतन। शायद आज हमारे इस्तेमाल में आने वाली शायद ही कोई शै हो जिसको हमने इज़ाद किया है या पहली बार बनाया है। automobile, computers, रेडियो, टीवी, सीमेंट, फोन और भी हज़ारों चीज़ें आप चाहे जिधर भी नज़र दौड़ा लो। अभी-अभी मैं एलोरा की गुफाओं की हैरान कर देने वाली engineering देख कर आ रहा हूँ जो लगभग 700 CE में बनी हैं। कैलाश मंदिर की Cut-in -monolith तकनीक कहीं से भी सिर्फ इंसानों द्वारा 1350 साल पहले बनाई नहीं हो सकती। अजंता-एलोरा की उन शानदार गुफ़ाओं की इंजीनियरिंग और कलात्मकता शायद आज हम कॉपी तक नहीं कर पाएंगे। लेकिन फिर क्या हुआ जो सब खो गया।
भारत के लोग धर्म से अधिक धार्मिक प्रतीकों और अनुष्ठानों में मशगूल हो गए। धार्मिकता चली गयी सिर्फ धर्म का व्यवहार रह गया। इमारतें रह गई , मूर्तियां रह गयी, लेकिन उनमें रची बसी प्राण प्रतिष्ठा छूट गयी। बनारस में जब बुद्ध के relics मिले तो उनको हासिल करने के लिए कई कई साम्राज्यों में युद्ध हो गया। हज़ारों लोग मारे गए , बुद्ध की शिक्षा धरी की धरी रह गई। राम और कृष्ण ने मंदिर नहीं बनवाये। मंदिरों के बनाने की क़वायद तो पौरोणिक काल से ही शुरू हुई मतलब करीब 200 BC . 4th और 5th CE के बाद से मंदिरों का निर्माण तेजी से हुआ जब यह मंदिर विभिन्न भारतीय साम्राज्यों के गौरव के प्रतीक बन गए।
आज़ादी के तुरंत बाद भी सोमनाथ मंदिर का भव्य निर्माण हुआ जो बेशक़ हमारी सांस्कृतिक धरोहर रहा है। और फिर नेहरू का वह कथन कि dams और कारख़ाने आधुनिक भारत के नए मंदिर हैं।
आज इन मंदिरों को बनाने में अत्यधिक मानवीय ऊर्जा खर्च कर हम क्या कोई चूक कर रहे हैं ? क्या फ़र्क है तब, और आज के मंदिर निर्माण में ?
4th से लगभग 12th CE तक के मंदिर निर्माण का युग भारतीय राजवंशों के लिए अपनी डिविनिटी, प्रतिष्ठा और वैधता को इन मंदिरों से बिल्कुल जोड़ कर देखने का रहा। यह मंदिर और विशाल निर्माण कार्य सभी राजवंशों को एक किस्म की validity/ वैधता प्रदान करते थे। आप पूछ सकते हैं कि इस किस्म की Validity आज के दिन में तलाशना क्या सही होगा ? हो सकता है, यदि सारा प्रचार तंत्र आपको और देश के Collective Conscience को 4th CE में ही बना कर या फंसा कर रखे। आपको आज के सवैंधानिक पद पर बैठा प्रधानमंत्री गुप्त वंश का 'राजा' दीखने लगे, इस प्रचार तंत्र (media) के माध्यम से यह माया निर्मित की जा सकती है। और बिलकुल बनाई इस माया का सुनियोजित तरीके से निर्माण किया भी गया है। नए संसद भवन को यदि आप लोकतंत्र का मंदिर मानिये तो उसके उद्घाटन वाले दिन आपको ऐसी ही माया के दर्शन हुए होंगे।
अगला सवाल यह कि, आज के भारत की divinity, प्रतिष्ठा और ऊर्जा के केंद्र क्या मंदिर मस्जिद हो सकते हैं ? मेरे ख्याल से मंदिर मस्जिद आस्था के सशक्तिकरण, धर्म व्यवहार, कर्म कांड, सामाजिक चेतना के सामुदायिक माध्यम तो हो सकते हैं किन्तु ईश्वर से आपका संयोग हमेशा-हमेशा एक निजी अनुभव ही रहेगा। मानव इतिहास में हमने तो कभी नहीं सुना कि लोगों के एक समूह को कभी निर्वाण, या मोक्ष एक साथ प्राप्त हुआ हो। आप भक्तों की टोली हो सकते हैं लेकिन वैयक्तिक रूप से कभी भी ईश्वर से योग हमेशा एक एकांकी मामला होता है। तो क्या मैं कोई नहीं बात कह रहा हूँ ? नहीं , हजारों सालों से भक्तो की टोली का निर्माण राजनीति के लिए किया जाता रहा है। भीड़ मानव की सामूहिक शक्ति और ऊर्जा का द्योतक है जो राजनीति के लिए अहम् है। मंदिर मस्जिद, सामाजिक समरसता एवं 'भक्तो की टोली' के निर्माण के लिए अत्यावश्यक हैं, बुद्धत्व को उपलब्ध होना सदैव एक निजी एकाकी अनुभव रहेगा। इस निजी यात्राजनित अनुभव को हम अध्यात्म भी कह सकते हैं।
मंदिर मस्जिद निर्माण का अपना अर्थशास्त्र भी है। साउदी अरब में सिर्फ हज और उमरा यात्रा से होने वाली वार्षिक आय करीबन $12 बिलियन आंकी जाती है। भारत में राम मंदिर निर्माण से भी कुछ ऐसी ही आकांछाएं होंगी। तीर्थ और पर्यटन में बेशक मज़बूत संभावनाएं हैं। लेकिन फिर भी एक ISRO या DRDO जैसे संस्थान से अगर तुलना करें तो क्या इन मंदिरों में ज्ञान विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी का कोई Virtuous Cycle बन सकता है ? क्या यहाँ वैक्सीन बन सकती है ? यहाँ पर मानवीय विकास की समस्त संभावनाओं का चक्र रुक सा ही जाता है। इन जगहों पर आकर आप सिर्फ ठहर कर धर्म का व्यवहार और व्यापर कर सकते हैं , इनसे आगे नहीं बढ़ सकते। उलटा काफी सभावना है कि आप retrogressive हो सकते हैं, वक़्त में पीछे जा सकते हैं। और जहां तक निर्माण की बात है तो न ही मंदिर निर्माण में कोई Innovation देखने को मिल रहा है न ही कोई नई शानदार आर्किटेक्चर। अयोध्या का राम मंदिर 'कंदरिया महादेव खजुराहो का लगभग कॉपी ही है। आर्किटेक्चर में भी, जो हो चुका है हम उसी को दोहरा बस रहे हैं। Redefine ना भी करें, कुछ reinterpret ही कर लें।
यदि Parliamentary Democracy में हमारी आस्था है तो हमारा संविधान ही हमारा धर्म है। वह धर्म जो हमारे सामाजिक व्यवहार को पारिभाषित कर चूका है। किन्तु यह काफी नहीं क्योंकि आपकी अध्यात्मिकता पर यह संविधान मौन है , होना भी चाहिए। वह आपका आपके अहं से साक्षात्कार है। उसमें किसी दुसरे की कोई ज़रूरत नहीं। बाकी हम जब भी किसी भीड़ का हिस्सा बनें तो सिर्फ अपने नागरिक धर्म के आधार पर बनें जो संविधान से परिभाषित हो। उपनिषदों के मुताबिक़ 'अविद्या' आपको ज्ञान विज्ञान से मिल जायेगी, 'विद्या' आपको आत्मचिंतन से। अपनी पहचान को हज़ार साल पहले के वक़्त सी जोड़ कर देखना Retrogressive है। हम इतिहास को यथावत देख सकते हैं , गर्व कर सकते हैं, अफ़सोस कर सकते हैं, लेकिन उसे दोबारा जीने की ज़िद्द सिर्फ एक राजनैतिक साजिश का हथियार है।