विकास क्या है? क्या वो चमचमाती सड़कों में बसता है ? या फिर डिजिटल उन्मुखता में? क्या वो सेल्फ़ी के उन्माद में है? या चीनी माल की चमक में? टेक्नोलॉजी क्या है? क्या वो गाँधी, शास्त्री और कुरियन की है जो गांव से निकल टियर थ्री, टू और वन को जोड़ती थी ? या गूगल या फ़ेकबुक की है जिससे हज़ारों मील दूर बैठे मुट्ठीभर कुछ "बड़े" लोग "सेल्फी" बेच दुनिया जीतना चाहते हैं? आज भारत में एक महाद्वंद ज़ारी है, ये गांव बनाम शहर नहीं, ये गाँधी बनाम गूगल है। क्या भारत इस महाद्वंद में विजयी निकलेगा या एक महापाश में बंध चिर समाधी में चला जाएगा? इस देश की आत्मा सरस्वती महोत्सव से निखरती और बड़ी पोखर जैसी ना जाने कितनी पोखरों में बसती है, जब तक संस्कृति और पर्यावरण की समझ रहेगी देश जीतेगा। दिल्ली टू बेगूसराय यात्रा का आनंद लें और अगली सेल्फ़ी से पहले सोचें ज़रूर
एक बड़ी रोड ट्रिप परिवार के साथ की जाए इसकी बड़ी इच्छा काफी समय से दिल में थी, अभी हाल फ़िलहाल ही भारत की सड़कों पर ढाई हज़ार किलो मीटर के सफ़र का अनुभव हुआ तो चलिए एक मुक़ाम मुक़म्मिल हुआ।
हालाँकि ५५ लाख किलोमीटर का भारत का रोड नेटवर्क विश्व का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है, मग़र गुणवत्ता के लिहाज़ से भारत की ये लंबी सड़कें काफी खस्ताहाल हैं तो रफ़्तार काफ़ी काम होने की उम्मीद थी, तो समय थोड़ा ज्यादा ही ले कर शुरुवात की गई।.
अपनी यात्रा शुरू करने के पहले हमे ख्याल था की हमारे मार्ग में दो एक्सप्रेसवे हैं. आगरा एक्सप्रेसवे और अखिलेश सरकार का बहुप्रचारित आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे।
शुरुवात की गई यमुना एक्सप्रेस वे से, नोएडा में भाई अनुपम के घर चाय पी, ग्रेटर नॉएडा से ही यमुना एक्सप्रेसवे पर चढ़ने का प्लान था.
यमुना एक्सप्रेसवे जेपी समूह द्वारा बनाया गया अपनी तरह का पहला निजी उपक्रम है, जिस पर भारत के नवधनाढ्य वर्ग को महँगी लक्ज़री गाड़ियों में देश की 98% आबादी से तीव्र गति से आगे निकलता देखा जा सकता है.
आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे के कुछ हिस्सों पर कार्य अभी प्रगति पर है किंतु सड़क की गुणवत्ता की दृष्टि से यह लाजवाब बना है. अखिलेश यादव ने इस एक्सप्रेसवे का उद्घाटन गत वर्ष नवम्बर में ही देश के युद्धक विमानों को इस पर उतार कर दिया था.
इन दोनों एक्सप्रेसवे के आगे बेगूसराय, बिहार की यात्रा अधिकांशतया राष्ट्रिय राजमार्ग २८ पर होनी थी.
हम दिल्ली से आगरा, फ़िरोज़ाबाद, शिकोहाबाद, लखनऊ, फैज़ाबाद, गोरखपुर,कुशीनगर, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर,समतीपुर इत्यादि मुख्या शहरों के होते हुए लगभग १२०० किलोमीटर की दूरी तय कर बेगूसराय पहुँचने वाले थे. यदि आप मैप्स पर देखें तो बनारस एवं पटना होते हुए एक रास्ता और है जो थोड़ा अधिक लंबा है. बहरहाल हमने गोरखपुर
होते हुए जाना तय किया था और १ फरवरी वसंत पंचमी एवं सरस्वती पूजा के दिन हम सुबह करीब ८.३० बजे दिल्ली से निकल पड़े.
दिल्ली से आगरा तक की सड़क आपको एक आपको एक अलग भारत में भेज देती है जिस पर आप ४१५ रुपये का टोल शुल्क देकर आम हिंदुस्तानी जीवन के कोलाहल से मुक्त हो सकते हैं.
सुबह यमुना एक्सप्रेसवे पर काफी धुंध थी और हम अपने सारे ब्लिंकर्स ऑन कर चल रहे थे. लेकिन मार्ग में मिले कई सारे भारी वाहनों ने बिलकुल भी ऐसी ज़रूरत नहीं समझी और अक्सर ही वो बिलकुल अचानक ही समक्ष अवतरित हो रहे थे.
हमारे देश के ज़्यादातर भारी वाहन कदाचित ब्लिंकर्स के इस्तेमाल से या तो अनभिज्ञ हैं या उन्होंने निकलवा ही दिए, प्रतीत होते हैं. सड़क सुरक्षा के कुछ मूलभूत एहतियाती उपायों में से एक है वाहनों की दृश्यता।
यमुना एक्सप्रेसवे अथॉरिटी के दायित्व दायरे में इन उपायों को सुनिश्चित करना अवश्य होना चाहिए. सुरक्षा की दृष्टि से एक और बात जो यमुना एक्सप्रेसवे की कंक्रीट की सतह से जुड़ा है वह है टायरों का अत्यधिक गर्म हो जाना.
विशेषज्ञ इस के लिए टायरों में मानक से कम दबाव रखने की सलाह देते हैं जिस से की कंक्रीट की सतह से घर्षण जनित ताप की वजह से टायरों में विस्तार की जगह रह सके. अत्यधिक ताप की वजह से इस एक्सप्रेसवे पर टायरों के फटने की कई वारदातें हो चुकी हैं. विशेषकर पुराणी गाड़ियों में यह खतरा ज़्यादा होता है. इस समस्या से बचने के लिए टायरों में नाइट्रोजन फिलिंग का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
आश्चर्यजनक रूप से एक्सप्रेसवे पर टायरों का दबाव जांचने की कोई प्रामाणिक व्यवस्था नहीं है. यमुना एक्सप्रेसवे अथॉरिटी द्वारा यह व्यवस्था अवश्य ही सुनिश्चित की जानी चाहिए.
मोदी जी की डिजिटल इंडिया की अवधारणा भी खंडित होती प्रतीत हुई जब टोल कर्मी ने कार्ड द्वारा भुगतान लेने में असमर्थता जताई क्योंकि नेटवर्क काम नहीं कर रहा. यमुना एक्सप्रेसवे जैसी आधुनिक व् संभ्रांत सडकों पर भी नेटवर्क का न पाया जाना डिजिटल इंडिया की चुनौतियों का बाजा देर तक मन में बजाता रहा.
करीब ११ बजे दिन एक्सप्रेसवे के बाहर हम कानपूर रोड की तरफ निकल पड़े. अब हम अपने चिर परिचित परिवेश में वापस आ चुके थे.
सडकों पर गति अवरोधकों का सिलसिला शुरू हो चुका था. इन अवरोधकों ने हमें इस कदर झकझोरा कि एक्सप्रेसवे की गतिजनित तन्द्रा तुरंत ही काफूर हो गयी.
उ. प. विधानसभा चुनाव सरगर्मियां हर तरफ जोरों पर दिखने लगी. सुरक्षा बल दस्तों की मूवमेंट चुनावी माहौल की संवेदनशीलता दर्शा रही थी.
आगरा से हमें फ़िरोज़ाबाद व् शिकोहाबाद होते हुए काठफोड़ी जाना था जहां से इस वक़्त आगरा लखनऊ एक्सप्रेस्सवे में प्रवेश हो रहा है.
करीबन ८० किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में हमें उम्मीद से ज़्यादा लगभग २ घंटे लग गए. इस दरम्यान पड़ने वाले सभी शहर -कस्बे राष्ट्रीय राजमार्ग की गति के साथ द्वंद्व में दिखते हैं.
यह द्वंद्व कस्बाई भारत की मनोदशा को पूरे रास्ते मिरर करता रहा. अनियोजित मोड़, दोराहे, चौराहे, दुर्दम्य गति अवरोधक, धीमी उलझी यातायात व्यवस्था, सडकों पर अतिक्रमण आम भारतीय सडकों का सजीव चित्रण करते हैं.
ट्रैफिक कांस्टेबल की उपस्थिति ज़रूर थी लेकिन सिर्फ उस तरह जैसे कि -प्रेजेंट सर!
ऐसे में दो मौकों पर टोल देना काफी खल गया. इन टोल बूथों में लेन नियंत्रण का अभाव, डिजिटल भुगतान न ले पाने की असमर्थता एवं कुछ मूलभूत सुविधाओं जैसे की महिला शौचालय का अभाव भी ५५ रुपये के टोल को और ज़्यादा भारी बना रहा था. इन पर गति अवरोधक ऐसे कि उतनी सामग्री में एक किलोमीटर सड़क और बन जाए.
दरअसल ऐसे गति अवरोधक हमारे यहां उस मनोदशा का परिचायक हैं जिस में एक ज़रा सा टोल वसूलने का अधिकार हाथ लगा अरेस्ट वारंट की तरह प्रतीत होता है, और फिर आप स्वयं को हर तरीके के हथकंडे अपनाने के लिए स्वतंत्र समझने लगते हैं.
सडकों की गुणवत्ता ऐसी शै है जिससे की आपका गहराई तक नाता है. ऐसी गुणवत्ता के लिए कहीं आप ४१५ रुपये का टोल देने को तैयार हो जाते हैं और कहीं ५५ रुपये भी भारी लगते हैं.
कठफोरी तक पहुँचने में कुछ पुलिस चेकपोस्टों का भी सामना हुआ. हालांकि पत्नी, बच्चे एवं घरेलु सामान देख कर उनका रवैय्या काफी नरम था.
यद्यपि सडकों पर कुछ ख़ास राजनैतिक चहल कदमी का सामना नहीं हुआ, चुनावी उद्घोषणाओं के बड़े बड़े कट आउट्स और ऍफ़ एम् रेडियो पर अविराम चल रहे विज्ञापनों से उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव का ताप सारा दिन महसूस होता रहा.
राहुल गाँधी व् अखिलेश यादव के किंचित युवा चेहरे इस चुनाव का ख़ास आकर्षण बने हुए हैं. इस बात को बिलकुल भुला दीजिये की समाजवादी पार्टी के देवाधिदेव लोहिया आजीवन कांग्रेस के विरोध में लड़ते रहे. और हर बात में समाजवादी पार्टी के करता धर्ता फिर भी लोहिया के नाम को भुनाना नहीं भूलते. लेकिन प्रदेश के लोगों में मुलायम की शुरू हो चुकी नेपथ्य यात्रा एवं इस गठबंधन द्वारा समुदाय विशेष के वोटों के ध्रुवीकरण की सहज समझ दिखी।
ढाबों में, चाय पान की दुकानों में डिजिटल भुगतान की संभावनाएं हमने खूब तलाशी, कहीं सफल नहीं हो पाए.
तकरीबन २ बजे हम आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे में प्रवेश कर गए. इस एक्सप्रेसवे के प्रति हमारे मन में काफी कौतुहल था जिसको हमने सेल्फी खींच कर सबसे पहले शांत किया.
यमुना एक्सप्रेसवे के अलग यहां का सतह एस्फाल्ट का है जिस से गाडी के पहियों से घर्षण कम होता है. मुझे महसूस हुआ की इस उच्च कोटि की एस्फाल्ट की सतह पर आप अच्छी गति कर सकते हैं. कठफोरी से २५० किलोमीटर की यात्रा हमने तक़रीबन ढाई घंटे में पूरी कर ली.
यहां का सफर फ़िलहाल आपको किसी निर्जन द्वीप की यात्रा सा प्रतीत होगा क्योंकि अभी यहां बहुत ही कम यातायात है, यात्री सुविधाओं का भी अभाव है. कई जगहों पर सड़क निर्माण से जुडी गतिविधियां भी चल रही हैं इसलिए डाइवर्जन्स भी बहुत मिलेंगे. इस उच्च गति के सफर में आपको कुछ और सावधानियां भी बरतनी होगी।
अभी यहां कोई पेट्रोल पंप भी नहीं है, इस लिए ध्यान रहे की २५० किलोमीटर चलने पास पर्याप्त ईंधन हो. सामने से अक्सर ही समान गति से आते भारी वाहन मिल जायेंगे, जिन से उचित दूरी बनाये रखें। डिवाइडर पर बनी फेंसिंग कई जगह से तोड़ी जा चुकी है ताकि स्थानीय लोग एवं उनके मवेशी आर पर आसानी से सकें।अच्छे स्तर के एक्सप्रेसवे पर एनिमल फेंसिंग दोनों तरफ अवश्य बनायीं जाती है, किन्तु यहां ऐसी कोई फेंसिंग अभी नहीं है.
वैसे अभी हम यहां टोल भी नहीं रहे. सारे कार्य के पूरी तरह से निबट जाने के बाद ही टोल वसूल जायेगा. जल्दी ही हम ट्रांसपोर्ट नगर, लखनऊ की भीड़ भरी सडकों पर पहुँच गए.
लखनऊ मेट्रो के स्तंभों देखकर सुखद अनुभूति हुई. ट्रांसपोर्ट नगर से चारबाग़ स्टेशन तक का ट्रायल रन दिसम्बर २०१६ में हो चूका है और आशा है की २६ मार्च २०१७ तक इसे औपचारिक तौर से लखनऊ की जनता को समर्पित कर दिया जाएगा।
हाल के कुछ वर्षों में भारत के लगभग हर बड़े शहर में मेट्रो परियोजनाओं को अमली जामा पहनाया जा है.इन मेट्रो परियोजनाओं भारत की आधारभूत संरचना के विनिर्माण में अमूल्य योगदान है, साथ ही इन्होंने शहरों के लैंड्सकैप को हमेशा के लिए बदल दिया है.
आधारभूत संरंचना का विनिर्माण राजनैतिक इच्छाशक्ति एवं पर्याप्त निवेश के साथ हो रहा है, आगे भी होता रहेगा। लेकिन सड़क पर चलने की तहज़ीब किसी वित्तीय निवेश से नहीं आती. सड़कें आप कितनी भी चौड़ी क्यों न कर लें यदि उस पर वाहन चलने का अनुशासन आप नहीं ला सके तो उस पर एक सुचारू यातायात व्यवस्था आप सुनिश्चित नहीं कर सकते.
लचर पुलिस और शहरी सडकों पर यातायात नियमों के प्रति घोर लापरवाही हमारे टियर बी एवं टियर सी शहरों की आम तस्वीर बनाती है. ट्रैफिक अनुशासन को कभी भी हम अपनी संस्कृति का हिस्सा नहीं बना पाए, न कभी किसी बड़े नेतृत्व से इस के लिए कोई आह्वान आया. हमारी सडकों पर सब चलता है, नहीं चलता तो मैनेज हो जाता है.
यह रात हम प्रभु श्री राम की नगरी अयोध्या में बिताने वाले थे. अयोध्या एवं फैज़ाबाद अवध के दो जुड़वां शहर बाबरी मस्जिद की जगह अपने सह अस्तित्व के लिए ज़्यादा मशहूर होने चाहिए थे.
NH-28 के संलग्न होने की वजह से इन शहरों में होटलों की कमी नहीं थी. रात हो चुकी थी और सड़क पर गहरी धुंध पसर चुकी थी. हमने हाईवे के समीप ही शान-ए-अवध में बसेरा लिया.
होटल पांच मंजिल था लेकिन लिफ्ट चौथी मंजिल तक ही जाती थी. पांचवी मंजिल को शायद ऑक्यूपेंसी सर्टिफिकेट लेने के बाद मैनेज किया गया होगा.
कमरे का बाथरूम भी सह अस्तित्व का उत्कृष्ट उदाहरण था. दरअसल हमारे बाथरूम के संलग्न दुसरे कमरे का बाथरूम था और बीच की दीवार हवा की आव जाहि के लिए करीब ८ इंच छोटी राखी गयी थी. परिणाम स्वरुप दुसरे बाथरूम में गिरता पानी का हर बूँद और स्नान करते वक़्त पढ़ा जाने वाला हर मन्त्र हमारे कान तक गूँज रहा था.
भवन निर्माण हमारे देश में कई तरह के समझौतों के साथ होता है। ऐसे में इमारतों के अंदर ध्वनि नियंत्रण प्रायः बहुत दूर की बात होती है. हम अभी भी चार दीवारों एवं एक छत भर को अपना आवास बना लेने के आदी हैं.
अगली सुबह हमें सवेरे ही लिए प्रस्थान करना था, नाश्ता हमने हाईवे के ढाबों में ही करने का मन बना रखा था. होटल की बिलिंग के वक़्त हम ने फिर से कार्ड से पेमेंट करने की चेष्टा की, लेकिन डिजिटल इंडिया से पुनः धोखा ही मिला.
अव्वल तो काउंटर पर बैठे केशियर ने बिल देने में ही बहुत कोताही की. देश के अर्थ व्यवस्था में हर कोई सफ़ेद धन से बचना चाहता है और यथासंभव टैक्स फ्री आमदनी चाहता है.
फैज़ाबाद से निकलते ही हम ६ लेन हाईवे पर पूर्वी उत्तरप्रदेश की जानिब अग्रसर थे. इस हाईवे पर हासिल तीव्र गति कदाचित इसलिए कि मानो यहां की बदहाली से हम मुंह चुरा कर तेजी से निकल सकें।
बस्ती के पास हमने एक सब्जी मंडी देखी और यहां के लोगों से थोड़ी बातचीत की. हमने मंडी के अंदर प्रशासन द्वारा दी गयी कुछ मूलभूत सुविधाओं के बारे में पूछा मसलन कोल्ड स्टोरेज, शौचालय, पक्के कैनोपी इत्यादि। यहां यह सब नदारद थे.
तक़रीबन आधे लोग स्वयं किसान थे और आधे बिचौलिए. किसानों के लिए बड़ी समस्या है साग सब्जियों की अल्पायु। बड़ी मात्रा में उनका कृषि उत्पाद भंडारण की समुचित व्यवस्था के आभाव में व्यर्थ है. बड़े शहरों के मुक़ाबले आधी कीमतों में बिकती यहां की साग सब्जियां किसानों की आय वर्ष २०२२ तक दो गुनी नहीं दिख रही.
उत्तर प्रदेश का कस्बों की स्काई लाइन प्राइवेट मेडिकल सुविधाओं, कोचिंग संस्थानों एवं स्कूलों से अटी पड़ी दिखी। चंडीगढ़ के हाईवे के मुक़ाबले जो कि फूड वे की तरह ज़्यादा नज़र आते हैं, गोरखपुर कुशीनगर तक के हाइवेज में ढाबों की वैसी शान ओ शौक़त नहीं दिखती।
यहां भोजन भी घरेलु स्वाद के ज़्यादा करीब लगे. ढाबों की शान में यह फर्क दोनों छेत्रों की बड़ी आर्थिक खाई का भी सूचक है. मोदी जी की नोटबंदी की मार का असर पूर्वी उत्तर प्रदेश की जनता पर कम ही दिखा.
हाँ, ज़मीन मालिकों को गिरती कीमतों का सामना अवश्य है. इस वजह से बाजार में ज़मीन जायदाद के सौदे कम हो रहे हैं और बाजार में सर्कुलेशन की कमी का सामना सब को है.
हालांकि नोटबंदी के मार की भरपाई काफी हद तक नितीश के "शराबबंदी" ने कर रखी है.
कुछ ढाबों पर बिहार के नंबर प्लेट वाली गाड़ियां बड़ी संख्या में नज़र आयीं। अंदर झाँका तो प्लास्टिक के गिलासों में लाल शरबत परोसी जा रही थी. ढाबे पे काम करने वालों ने बताये कि आजकल बिहार से काफी बिज़नस इधर शिफ्ट हो गया है.
ढाबों पर यहां इन दिनों शाम होते ही बिहार की गाड़ियों का जमावड़ा बढ़ जाता है. भगवान् ही जानता है जब रात को ये गाड़ियां बिहार अपने घर को वापस जाती होंगी तो इनके चालक कितने होश में होते होंगे. उच्चतम अदालत की भाषा में तब ये गाड़ियां चलते फिरते फिदायीन दस्ते की तरह हो जाती होंगी।
हमारी अगली मंज़िल गोपालगंज थी. उत्तरप्रदेश -बिहार बॉर्डर पर ट्रकों की लंबी लंबी कतारें न जाने क्यों लगी थी. हमने कुछ ट्रक चालकों से बात की तो मालूम हुआ की सभी अपने मालिकों की तरफ से ज़रूरी कागजातों की प्रतीक्षा में थे.
यहां बॉर्डर पर ट्रक चालकों की सेवा में कुकुर मुत्ते की तरह इन्टरनेट पार्लर खुल गए हैं. ट्रक चालक यहां अपने कागजात के प्रिंट ईमेल द्वारा निकलवा सकते हैं.
९० के दशक में जिस तरह का नज़ारा STD/PCO बूथों का होता था ठीक वैसा ही यहां इन्टरनेट पार्लर का था.
ट्रकों की लंबी कतार के आगे बिहार प्रवेश करते ही सरस्वती पूजा की धूम धाम नज़र आने लगी. गोपाल गंज प्रवेश एन एच २८ की गति पूर्ण रूप से रुक गयी. मीलों आगे तक सड़क निर्माणाधीन थी, जिस वजह से हमें शहर से बाहर निकलने में काफ़ी अधिक समय लग गया.
हमारा अगला पड़ाव मुज़्ज़फ़्फरपुर था. उत्तरप्रदेश एवं बिहार की आबो हवा में में एक मुखर फर्क सरस्वती पूजा के आयोजन को लेकर दिखा.
बिहार में इस पूजा की रवानगी कुछ विशेष ही नज़र आती है. चूँकि यह पूजा का अगला दिन ही था इसलिए आज विसर्जन नहीं हो रहा था. यदि हम एक दिन बाद चले होते तो विसर्जन जुलूस से लगने वाले जाम में फँस गए होते.
६ लेन हाईवे पर ५५ रुपय का टोल देकर हम जल्द ही मुजफ्फरपुर पहुँच गए.आगे समस्तीपुर,मुसरीघरारी,दलसिंहसराय,तेघड़ा,बछवाड़ा होते हुए हमें बेगूसराय पहुंचना था.
दिन ढल चुका था. मुजफ्फरपुर से आगे निकलते ही कोहरा भी गहरे उजले धुंए की तरह हमारे आगे गिरने लगा. ऐसे में हाईवे पर स्ट्रीट लाइट्स की कमी बेहद खली. समस्तीपुर से आगे टोल देते समय मैंने टोल कर्मी से स्ट्रीट लाइट्स का मुताबला डाला।
अब आगे २ वे ट्रैफिक था. बिहार में हाईवे पर चलने वाली तमाम गाड़ियां न सिर्फ हाई बीम पर चलती हैं बल्कि उनके मस्तक, काँधे व् बाजुओं पर चकाचौंध कर देने वाली बहुत सी अतिरिक्त रौशनी होती है.
अगर हर गाड़ी से एक एक रौशनी दान में ले ली जाए तो पूरे हाईवे पर आम लोगों के लिए पर्याप्त रौशनी हो सकती है. इन गाड़ियों के सामने से गुजरने के बाद कुछ देर के लिए आप के आगे घुप्प अँधेरा छा जाता है, जो काफी खतरनाक हो सकता है.
दबंगई मानसिकता प्रायः सब से पहले हमारे वाहनों में ही क्यों दिखती है? रात के वक़्त भी रौशनी ऐसी की सिर्फ हमें ही दिखे किसी और को नहीं।
बहरहाल हम देर शाम करीब साढ़े आठ बजे बेगूसराय पहुँच गए. माँ के हाथ की चाय पी कर पूरे दिन के सफर की थकान मिट चुकी थी.
बेगूसराय की सरस्वती पूजा
पिता जी ने बताया कि कल से विसर्जन शुरू होना है. हमारा घर शहर के मुख्य तालाब "बड़ी पोखर" के किनारे है. इस पोखर से हमारी पुरानी एवं प्रिय यादें जुडी हुई हैं. छठ महापर्व के दो दिन इस पोखर के साल भर का सब से बड़ा आकर्षण हुआ करते थे. दुर्गा पूजा व् सरस्वती पूजा के उपरांत देवी की प्रतिमा विसर्जन इसी तालाब में हुआ करता आया है. इन पर्व त्योहारों के दौरान यह पोखर समस्त विसर्जन गतिविधियों का केंद्र हुआ करता है.
लेकिन तब के मुक़ाबले आज की पूजा-विसर्जन का स्वरुप पूर्णतया बदल चूका है. शायद यह विशुद्ध नोस्टाल्जिया हो, किन्तु आज की पूजा में श्रद्धा भक्ति की जगह खिलंदड़ेपन का स्तर चरम पर दीखता है.
अगले दिन सुबह से ही सरस्वती वंदना की जगह कान फोड़ू भोजपुरी संगीत का वादन शुरू हो गया.
लोकप्रिय बॉलीवुड संगीत के तर्ज़ पर सरस्वती वंदना का ऐसा घालमेल, वो भी १०० से अधिक डेसिबेल की ध्वनि पर, की समस्त भक्तगण नृत्य करने लगे.
फिर तो देर रात तक इस नृत्य संगीत का कार्यक्रम चलता रहा. वातावरण में ध्वनि प्रदूषण की विषाक्तता तो थी ही साथ ही हिप हॉप, फ्री स्टाइल एवं ब्रेक डांस की भाव भंगिमाओं से हमारी बड़ी पोखर के इर्द गिर्द का पूरा माहौल उन्मादमय हो गया.
नितीश जी ने "शराबबंदी" अवश्य की है लेकिन बसंत बेला में हमारे नव युवकों को भांग का सेवन करने से कौन रोक सकता है.
कुछ लड़कों व् सरस्वती भक्तों से मैंने ये जान ने की कोशिश की क्या आज "ताड़ी" भी सहज उपलब्ध है. तो उन्होंने गुलाल उड़ाते हुए हाँ में सर हिला दिया.
फ़ेकबुक और व्हाट्सएप्प वाले सेल्फ़ी भक्त, भारत का भविष्य और वोटर गण
"शराबबंदी" और "नशामुक्ति" जाहिर है दो अलग अलग चीज़ें हैं. लेकिन इस पूरी विसर्जन प्रक्रिया का मूक शिकार हमारी बड़ी पोखर रही, जिसके जल में सरस्वती भक्तों ने POP की असंख्य प्रतिमाएं, उनके धातु व् प्लास्टिक से बने साजो सामान, केश, आभूषण इत्यादि सब कुछ समर्पित कर दिया.
पोखर के पानी ने महज़ अपना रंग और काला कर अपना विरोध दर्ज कर दिया.
तालाब के पूरे सतह पर सरस्वती भक्तों की भक्ति प्लास्टिक के कचरे के रूप में तैर रही थी.
लोगों ने बताय कि ऐसे विसर्जन के उपरान्त अगली सुबह मछलियां भी मरी पायी जाती हैं. बचपन में ही हम इस तालाब की मछलियां खाया करते थे. पहले इस में हरे शैवाल की भी बहुतायत होती थी, जिसे स्थानीय नगरपालिका द्वारा छठ पर्व के एक हफ्ते पूर्व साफ़ किया जाता था. इस बार पानी का रंग हरे की बजाय काला था.
तालाब के चारों ओर घनी आबादी है जिनके घरों में भू जल ही प्रयोग में आता है. आश्चर्य नहीं होगा यदि इन घरों के चापाकलों से आता पानी प्रदूषण की सारी सीमाओं के पार हो.
देवी देवताओ की प्रतिमा के जल विसर्जन के पीछे जो सोच है, आज की पूजा अर्चना से उसका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है. प्रतिमाओं का नदियों-तालाबों में जल विसर्जन जीवन श्रृंखला के सातत्य का द्योतक है.
देवी की मूर्ति नदी ताल के मिटटी से बनती है, पूजी जाती है और फिर वापस नदी में ही विसर्जित कर दी जाती हैं. ताकि अगले साल देवी फिर इसी मिटटी से दोबारा हमारे बीच आ जाये.
लेकिन हमें इस श्रृंखला से क्या सरोकार!
अब हम प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से मूर्तियां गढ़ते हैं क्योंकि इस से अच्छी फिनिश बड़ी आसानी से हासिल हो जाती है. देवी के आभूषण, साजो सज्जा, केश इत्यादि सब कुछ चीनी कारखानों में बने प्लास्टिक के अवयव हैं जिन्हें हम हर वर्ष बड़ी मात्रा में अपने जलाशयों में डाल रहे हैं.
इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने वर्ष २०१३ से ही गंगा यमुना में मूर्ती विसर्जन पर रोक लगा रखा है. कुछ प्रबुद्ध व् संवेदनशील लोगों ने प्रतिमाओं के भू विसर्जन की परंपरा भी शुरू की है. किन्तु हमारा शहर, हमारे लोग अभी किसी अलग ही उन्माद में हैं, और इस उन्माद में इन तालाबों का मरना तय है.
मोदी जी ने "स्वछ भारत" की व्याख्या अभी ठीक से नहीं की है. स्वछ भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर बड़ी मात्रा में वायु, जल एवं ध्वनि प्रदूषण व्याप्त है. हज़ारों वाट के दैत्यनुमा स्पीकरों ने ले ली है, जिनके पीछे देश के युवाओं की ऊर्जा गली मोहल्लों में भटक रही है.
स्वछ भारत की परिकल्पना में धार्मिक शुचिता की उचित व्याख्या भी करनी होगी। इसके लिए राजनेताओं के बजाय अगर हम धर्म गुरुओं की तरफ देखें तो बेहतर होगा. यद्यपि दुर्भाग्य से आज तक हम ने किसी शंकराचार्य को अपने दूषित होते परिवेश के लिए बोलते समझाते नहीं सुना है.
शहर में ई - रिक्शा खूब चल रहा है आजकल। यह पॉज़िटिव बदलाव इतना तो ज़रूर कहता है कि बदलाव संभव है.